मैं बंटा हुआ हूँ,
खुद में, तन में, मन में,
धन में,
और भांति
भांति के व्यर्थ चलन में,
मानव मन की हर संभव गति संग,
जल थल अग्नि नभ और पवन में।
मैं सिमटा हुया हूँ,
इन धर्म
जाति के जीर्ण घरों में,
इस देश
प्रदेश की विकृत सोच में,
घुटता हूँ बेहद संकरी सीमाओं में,
अपने पराये काले गोरे रंग भेद में।
मैं लुटा हुया हूँ,
शब्दों ने
लूटा है मुझको तानो में अब,
मैंने अग्नि
पिरोयी है अपने गानों में,
बस मटमैला रंग लिए जो फिरते हैं,
जेहादी नफरत का शीतल श्वेत बागानों में।
मैं बड़ा हुया हूँ,
सच को खुद
में घिस घिस पीकर अब,
कड़वा सच ही
बेखौफ भरूँगा शब्दों मे,
चाहे प्रतिकार करे लेखनी चलने से अब,
जनता का क्रोधित अवसाद बुनूँगा शब्दों में।
मैं डटा हुआ हूँ,
जीवन के
कर्मक्षेत्र के प्रबल युद्ध में,
महावीर रथी
लिए कलम हैं कर में,
निर्बल असहायों का करुण क्रंदन सुन,
निर्मूलन अत्याचारों का निश्चय मन में।
जनता का क्रोधित अवसाद बुनूँगा शब्दों में।
भारत माँ का अद्भुत सृंगार करूंगा शब्दों में।
बहुत सुन्दर....
ReplyDeleteएक सम्पूर्ण और सार्थक कविता..
बधाई.