Sunday, December 11, 2011

सद्गुरु



एक जंग छिड़ी है मेरे घर में,
मेरे अंतर में इस उर में,
दो प्रतिद्वंदी बड़े सजग हैं,
रहते हैं बस इसी व्यक्ति में।

समझ न आता किसे जिताऊँ,
दोनों ही हैं जीत हमारी,
अंतर है तो इक विचार का,
बसते दोनों एक ही मन में।

हर पल बढ़ती उलझन घेरे,
धुंधले बादल चहुं ओर घनेरे,
कुछ भी सत्य नहीं जीवन में,
किसको अपनाएँ किससे मुँह फेरें?

किधर बढ़ें हम निर्भय होकर?
असफल होने का भय घेरे।

Om Shankar Ji Tripathi
एक तपस्वी दिखा सजग है,
अविचल तन संग स्थिर मन में,
आत्मशक्ति का तेज लिए
बैठा निर्भय होकर वन में

एक ललक है एक हेतु है,
एक लक्ष्य है तन में मन में,
बड़ा विकट है स्थिर हठ है,
अविरत तप उसके जीवन में

मेरी विचलित चंचल दृष्टि,
आकर्षित उसके चरण कमल में,
पाकर एक किरण सद्गुरु से,
लगे शांति बढ़ती है उर में।

6 comments:

  1. बहुत खूब....
    सच है....जब खुद कोई राह ना दिखे तब गुरु शरण सबसे अच्छी राह है..

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  2. बहुत सुन्दर रचना |

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  3. सुन्दर अभिव्यक्ति.

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  4. ,

    इन पंक्तियों में मनुष्य के अन्तः मन में होने वाले जन्झावातों का विवरण है जो खुद ही संपूर्ण जीवन ये निश्चित ही नहीं कर सकता ,की गलत क्या है और सही क्या ? इन पंक्तियों की आलोचना करना मेरे लिए तो असंभव है !



    राहुल

    ReplyDelete
  5. इन पंक्तियों में मनुष्य के अन्तः मन में होने वाले जन्झावातों का विवरण है जो खुद ही संपूर्ण जीवन ये निश्चित ही नहीं कर सकता ,की गलत क्या है और सही क्या ? इन पंक्तियों की आलोचना करना मेरे लिए तो असंभव है !

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प्रशंसा नहीं आलोचना अपेक्षित है --

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