एक जंग छिड़ी है मेरे घर में,
मेरे अंतर में इस उर में,
दो प्रतिद्वंदी बड़े सजग हैं,
रहते हैं बस इसी व्यक्ति में।
समझ न आता किसे जिताऊँ,
दोनों ही हैं जीत हमारी,
अंतर है तो इक विचार का,
बसते दोनों एक ही मन में।
हर पल बढ़ती उलझन घेरे,
धुंधले बादल चहुं ओर घनेरे,
कुछ भी सत्य नहीं जीवन में,
किसको अपनाएँ किससे मुँह फेरें?
किधर बढ़ें हम निर्भय होकर?
असफल होने का भय घेरे।
एक तपस्वी दिखा सजग है,
अविचल तन संग स्थिर मन में,
आत्मशक्ति का तेज लिए
बैठा निर्भय होकर वन में
एक ललक है एक हेतु है,
एक लक्ष्य है तन में मन में,
बड़ा विकट है स्थिर हठ है,
अविरत तप उसके जीवन में
मेरी विचलित चंचल दृष्टि,
आकर्षित उसके चरण कमल में,
पाकर एक किरण सद्गुरु से,
लगे शांति बढ़ती है उर में।
बहुत खूब....
ReplyDeleteसच है....जब खुद कोई राह ना दिखे तब गुरु शरण सबसे अच्छी राह है..
बहुत सुन्दर रचना |
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति.
ReplyDeletebahut hi sundar bhavabhiykti..
ReplyDelete,
ReplyDeleteइन पंक्तियों में मनुष्य के अन्तः मन में होने वाले जन्झावातों का विवरण है जो खुद ही संपूर्ण जीवन ये निश्चित ही नहीं कर सकता ,की गलत क्या है और सही क्या ? इन पंक्तियों की आलोचना करना मेरे लिए तो असंभव है !
राहुल
इन पंक्तियों में मनुष्य के अन्तः मन में होने वाले जन्झावातों का विवरण है जो खुद ही संपूर्ण जीवन ये निश्चित ही नहीं कर सकता ,की गलत क्या है और सही क्या ? इन पंक्तियों की आलोचना करना मेरे लिए तो असंभव है !
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