Thursday, October 6, 2011

दुंदभी


खोखली मानवता, इंसानियत निरुपाय,
धर्म की परिभाषाएं भी झूँठी लगती हैं,
मानव से मानव को लड़ता देख कृष्ण,
महाभारत की गाथा भी छोटी लगती है॥

खुद की छाती पर सड़ते अपने पुत्र देख,
ये माँ धरती भी अब तो रोती रहती है,
चहुँ ओर मची है लूट-खसूट देख पार्थ,
तेरे गाण्डीव की गुरुता कमतर लगती है॥

राम और कृष्ण व्यस्त क्षीर सागर में,
अब ये धरती न उनको अच्छी लगती है,
आओ परशुराम, बलराम तुम्ही आओ,
ये धरती तुम्हारी भी तो माँ लगती है॥

आ जाओ अब, नहीं तो हम भी देखेंगे ये,
लेखनी कब तक धरती का दुखड़ा गाती है?
देखेंगे ये कलम भी कब तक दुंदभी बजाती है?
अत्याचारों से हिलती धरती प्रलय न लाती है?

5 comments:

  1. excellent.....no matching words to appreciate this.very very good.

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  2. बहुत सुन्दर अद्भुत रचना| धन्यवाद|
    आप को दशहरे पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ|

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  3. sahi kaha hai aapne, parshu or balraam ko aana hi padega...

    aapko dashra ki subhkaamnayen

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  4. वर्तमान समय की विषमताओं पर सार्थक टिप्पणी !

    ReplyDelete

प्रशंसा नहीं आलोचना अपेक्षित है --

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