Monday, August 29, 2011

एक लघुदीप की लौ



इक खामोश अँधेरी रात की, इक रोशनी कहती है,
ये जो चमक है, उस लघुदीप की कहानी कहती है,
जिसकी लौ में जिजीविषा की, छोटी झलक दिखती है,
और इस अथाह अँधेरे से, लड़ने की कोशिश दिखती है॥

ये रात से जंग जीत लेने की, ख्वाइश दिखती है,
मजलूम की ईश्वर से की गयी, फरमाइश लगती है,
इस कालिमा में भले ही, बस निपट अकेली होती है,
फिर भी, इस रात के सूनेपन में लहराती रहती है॥

इस लघुदीप की मद्धिम लौ, खुद ये कहानी कहती है,
ये सरसराती हुई ठण्डी हवाओं की, जुबानी कहती है,
जूझती हुयी काल के थपेडों से, ऐसा लगे जैसे युद्ध में,
आखिरी बचे सिपाही के, ध्वज की निशानी होती है॥

इसे शायद बस इसी तरह, जीने की आदत लगती है,
या व्यक्ति की निराशा देख, हँसने की चाहत लगती है,
और इन्सान को कठिनाइयों से, लडने की प्रेरणा देती है,
या नयी सुबह की आशा जगाने की, कोशिश लगती है॥

किसने सिखाया होगा इन्हें, बस यूँ जिहाद करना,
और फ़िर औरों के लिये, खुद को ही यूँ बर्बाद करना,
इन्हे छोटा बताना तो, अन्धेरों की साजिश लगती है,
हमारी भी इन्ही की तरह, जीने की ख्वाईश रहती है॥

हमारी भी इन्ही की तरह, जीने की ख्वाईश रहती है।
बस इन्ही की तरह, फ़ना होने की कोशिश होती है॥

3 comments:

  1. सीखने वाले तो दीपक की लौ से भी सीख लेते हैं ...
    प्रेरक!

    ReplyDelete

प्रशंसा नहीं आलोचना अपेक्षित है --

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